अरे निवासी अन्तरतर के
हृदय-खण्ड जीवन के लाल
त्रास और उपहास सभी में
रहा पुतलियाँ किये निहाल।
संकट में वह गोद, मोद कर
जहाँ टपकता धन्य रहा,
मार-मार में गिर न हठीले
निर्जन है, मैं वन्य रहा।
ठहर जरा तुझ से प्यारे के
चरण कमल धुल जाने दे
और जोर से सिसक सकूँ
वे मंजुल घड़ियाँ आने दे।
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४