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आइए पढ़ आएँ चलकर / नईम

आइए पढ़ आएँ चलकर
फातेहा उनकी मज़ारों पर।

पीर, सूफी, औलिया या संत शायद
रहे हों अपने दिनों के,
वो खुदा होते रहे होंगे हज़ारों
आशिकों के, कमसिनों के;

चाँद सूरज नाचते होंगे।
कभी उनके इशारों पर।

कब्र में सोए पड़े वो चैन से,
सूने पड़े सब आस्ताने,
आज चोरों-तस्करों ने यहीं पर
बेखौफ कर रक्खे ठिकाने।

लग रही है अब इन्हीं की-
नाव मनचीते किनारों पर।

आज क्या माँगें भला इनसे,
करें क्या हम इन्हें अर्पित?
दृष्टि में इनकी हमारे
मूल ये अभिचार वर्जित।

पिता ये इंसानियत में
अभी भी भारी हजारों पर।

आइए पढ़ आएँ चलकर
फातेहा उनकी मजारों पर।