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आईना / कुमार कृष्ण

यह बात उन दिनों की है
जब नहीं पहुँचा था गाँव में आईना
थाली के पानी में चेहरा देखकर
सँवारते थे खुद को लोग।

पढ़ता रहा सदियों तक थाली का आईना
चेहरे की ख़ुशी
होठों की खलिश
पानी में डूबी हुई आँखें सँवारती रहीं
चेहरे का सच।

पहुँच गया एक दिन गाँव में शहर से आईना
सिर से पाँव तक खुद को देखने लगे लोग
गाँव के लोगों को देखने लगा शहर का आईना
करने लगा सबको गिरिफ़्तार बारी-बारी
भूल गए लोग उसकी गिरिफ़्त में आकर
चेहरे का सच
भूल गये लोग थाली का घेरा
पानी की पारदर्शिता।
चेहरे की कसौटी का दूसरा नाम है अब आईना
आईना है झूठी झील
काठ की नौकाएँ जहाँ तैरती हैं दिन-रात
बना रहा धीरे-धीरे आईना
पृथ्वी को संवादहीन
कर रहा समाप्त
थाली और चेहरे का पुराना रिश्ता।