इस शहर में मेरा
एक ही है दुश्मन
जो चाहता है
मेरे बारे में कुछ कहना
वह है, आईना
आता मैं
जब भी इसके पास
मेरा एक भी
नहीं छोड़ता हाल
इससे मैं
हो जाता बेहाल
गुस्से से मैं
तब तमतमा जाता
जब
आईने के सामने
होते दो-चार ऽड़े
और
मैं उसमें
होता सबसे परे
तब
पता चलता है
मैं कौन हूँ
मैं मौन हूँ
अंत में
मिटता मेरा अहम
लगती मुझे शरम
आऽिर मैं कौन हूँ
मैं मौन हूँ।