MERCY KILLING पर लिखना चाहता हूँ
एक सुंदर सी कविता
यहाँ बैठकर
लेकिन मैं कर नहीं पा रहा
उस मार्मिक सौन्दर्य की अनुभूति
जो किसी लाश के चेहरे पर बिखरी
ज़र्द मासूमियत को
सुनसान आँखों से सहलाने के बाद होती है
मानस-पटल पर बनने वाले बिम्ब के
चीथडे क़र देती हैं
परिजनों के विलाप से उठने वाली
ध्वनि तरंगें
दर्द से तड़पते मरीज़ की
कोई दुनिया नहीं होती
ख़ूबसूरत नर्सें कम नहीं कर सकतीं
पेशानी पर झूलती लटों से
ब्रेन-टयूमर से होने वाले दर्द को
जब मरीज़ आख़िरी गाँठ खोल रहा हो
बची-खुची साँसों से बंधी पोटली की
तैयार बैठे हैं सगे-सम्बंधी
डॉक्टर और यमदूत से झगड़ने के लिए
बौखलाए फिरते हैं इधर-उधर
गौण हो गया है सब-कुछ
पृथ्वी घूम रही है
उनके सीने में धँसी ज़ंग लगी कील पर
किसी को पहली बार देख रहे हैं
इस तरह छटपटाते हुए
नहीं आएगा डॉक्टर
जब तक चाय की एक घूँट भी
बची है उसकी प्याली में
अति भावुकता, संवेदनशीलता
कैसे हो सकता है एक डॉक्टर का धर्म
आते ही रहते हैं अस्पताल में
ऐसे मरीज़ हर रोज़
ऐसा नहीं होना चाहिए
मेरी कविता का अंत
एहसास है मुझे भी
लेकिन क्या करूँ
चाय में गिरी हुई मक्खी अब मर चुकी है !