खरोंचों की वजह से टपकते हैं लहू
इतना घायल है भीतर का हिस्सा
जहाँ अनुभूतियों का जन्म होता है
आपकी मुस्कराहट से पोंछता हूं ज़ख़्म
तर-ओ-ताज़ा हो जाता हूँ
मैं वृक्ष नहीं हूँ, न ही सागर न ही चट्टान
मनुष्य होने की सीमाओं को जानता हूँ
दौड़ते हुए, गिरते हुए, उठते हुए
हताशा से गन्दा होता है वजूद
आप के पास धोता हूँ वजूद
इतनी निर्मल हैं आप
जैसे जलधारा हों
मैं आपके दामन में सिर छिपाकर
काट नहीं सकता उम्र
मुझे और भी मोर्चे पुकारते हैं
इतनी कोमलता परोसती हैं आप
भीतर का पाषाण पिघलने लगता है
और मैं ख़ुद को विश्वास दिलाता हूं
कि नहीं मैं कमज़ोर नहीं हुआ हूँ
भीगी हुए आँखों के कोर मैं जतन के साथ
सबसे छिपा लेता हूँ
इसी तरह लड़ते हुए
ज़ख़्मी होकर
आऊँगा आपके पास
धोऊँगा अपने घाव
बटोरूँगा निर्मलता
और आपका निश्छल प्रेम ।