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आए भुजबंध दये ऊधव सखा कैं कंध / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

आए भुजबंध दये ऊधव सखा कैं कंध
डग-मग पाय मग धरत धराये हैं ।
कहै रतनाकर न बूझैं कछु बोलत औ,
खोलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैं ॥
पाइ बहै कंच मैं सुगंध राधिका को मंजु
ध्याए कदली-बन मतंग लौ मताये हैं।
कान्ह गये जमुना नहान पै नए सिर सौं
नीकै तहाँ नेह का नदी मैं न्हाइ आए हैं ॥२॥