आओ, आगे चलें / कुमार रवींद्र

आओ, आगे चलें
उधर देखें
पगडंडी गई कहाँ तक
 
दूर-दूर तक
उधर बिछा, हाँ, आसमान है
वहाँ दिख रहा
इक्का-दुक्का ही मकान है
 
दिखे हमें
रस्ते में शायद
कोई पर्वत-कन्या औचक
 
झुंड बकरियों के
ढालों पर चरते दीखें
सुनें गड़रियों की
उनको गुहराती चीखें
 
वहीं मिले
शायद सुनने को
वनपरियों का कहीं कथानक
 
घाट-घाट की
पगडंडी दे रही गवाही
पीढ़ी-दर-पीढ़ी है
इस पर आवाजाही
 
इस पर चलकर
पाँव हमारे
सदा रहेंगे, सजनी, अनथक

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.