Last modified on 7 मार्च 2014, at 00:17

आओ संगीत आओ / मोहन कुमार डहेरिया

आओ संगीत आओ
मेरे मस्तिष्क की कोशिकाओं को शक्तिशाली बनाओ
सामान्य करो मेरे शरीर के बढ़े हुए रक्तचाप को
कम करो देह की अकड़ी हुई माँसपेशियों का तनाव
पैदा करो मेरी जीभ की नष्ट हो गई स्वादग्रँथियों में सम्वेदनशीलता
ठीक करो मेरी विकृत वाक्शक्ति को

आओ संगीत आओ

वर्षों से जल रही मेरे कण्ठ में एक ही प्यास की लौ
वर्षों से एक ही घाव मेरे घर का पता
वर्षों से एक ही आग के दरिया के चारों ओर घूम रहा
कि करूँ तो कैसे करूँ तैर कर पार
वर्षों से एक ही ग्लानि को धुन रहा किसी धुनिये-सा
रेशे-रेशे को देखता छाती पीटता

आओ संगीत आओ

मात्र मुझ पर न ख़त्म हो तुम्हारी यात्रा
लाँघों देशों की सरहदें, पार करो महासागर और पहाड़
सोख लो खेतों, कारख़ानों तथा खदानों में काम करते
दुनिया के सारे मज़दूरों के माथे का पसीना
मदद करो बाढ़, भूकम्प से ढह गए घरों को खड़ा करने में
पीस डालो बलात्कार के बाद मार डाली गई बेटियों की पिताओं की आँखों में
उगी अनिन्द्रा की कीलें
पाठशालाओं में बच्चों के सिरों पर चट्टान-सा लदे ज्ञान को कपास के फूल सा हल्का बनाओ
बजो चाहे हिन्दुस्तान के मन्दिरों, सऊदी अरब की मस्ज़िदों या अमेरिका के चर्चों में
अफ़ीम का नशा न पैदा करे तुम्हारी धुन
फुर्तीले, चौकन्ने और विवेकवान बने रहें मनुष्यों के चेतना के घोड़े

आओ संगीत आओ

सुबह की लालिमा में चमकते पर्वतों के सुनहरे शिखरों, शाम के धुँधलके में लिपटे जंगलों
तथा परिन्दों के कलरवों की मायावी दुनिया का रहस्य खोलो
ब्रह्माण्ड के हर कण की अस्मिता को रेखांकित करते हुए करो उसकी लय को उद्घाटित
बनो न किसी फूहड़ स्पर्धा का हिस्सा, न करो लहू की प्यासी किसी सेना का नेतृत्व
साज, साजिन्दे, गायक और श्रोताओं को एकाकार करते हुए आओ
करो मनुष्यों को जन्म और मृत्यु के खेल से मुक्त
साम्प्रदायिकता और नस्लवाद के बीहड़ अन्धेरे में भटकते दहशतगर्दों की भ्रमित बेचैन रूह को
सुकून के अनगिनत झिलमिलाते जुगनुओं से भर दो

आओ संगीत आओ ।