स्वयं नदी होते हुए भी
रेत-सी बिछी रही
अपने ही किनारों पर
सुखाती रही ख़ुद को
तन्हाई की धूप में
कि ज़्ारा-सी भी नमी
मेरे वजूद की घाटी में
आँसू तुम्हारे रोक न ले
तुम लौट न जाओ बादल
तुमने तो एक बार भी
आकर देखा ही नहीं
कितना सूख चुका मेरा जल
लगा लिया अनुमान
कि लायी हूँ पर्वतों से
अथाह जलराशि
कि बहते हैं मुझमें
पिघले ग्लेशियर
नहीं देख पाए तुम
कितनी लम्बी थी मेरी यात्रा
नहीं गिन पाए
मेरे पाँवों में चुभते
कंकड़, पत्थर
मेरा रास्ता रोकती
असंख्य चट्टानें
क्या नापा तुमने कभी
भिगोया कितना मैंने
धरती का आँचल
मैं सींचती रही
राह में आने वाला हर खेत
छीजती रही खुद
मुझमें बढ़ती रही रेत
पलता रहा दुःख
तुम एक बार आकर तो देखते।