मुझे बुला रहा गगन कि-
‘‘आ यहाँ, कि आ यहाँ, कि आ यहाँ।
न जी अरे, घुटा-घुटा, गला-गला,
मनुष्य है मनुष्य हाय, तू भला!
निहार मेघ-बीच दृप्त चंचला,
मरोड़ तोड़ फेंक लौह-शृंखला,
सुगंधवान, प्राणवान वायु-बीच,
आँख मींच, पाँख फड़फड़ा यहाँ।’
मुझे बुला रहा गगन-
‘अषाढ़ मेघ-माल की उमंग ले,
प्रकाश के समुद्र की तरंग ले,
प्रभात के समस्त रूप-रंग ले,
सुडौल शक्तिवान अंग-अंग ले;
अरे अथाह पी प्रकाश-माधुरी,
असीम मुक्ति बीच लहलहा यहाँ।’
मुझे बुला रहा गगन-
‘‘अकूल ले हिलोर प्राण में नई,
ज्वलन्त लाल ज्योति गान में नई,
अबाध ले उड़ान, तान में नई-
मिले नहीं कि जो विहान में कहीं!
यहाँ वसंत-पंचमी हरेक पल।,
कि रंग की तरंग में नहा यहाँ!,
मुझे बुला रहा गगन-
‘‘अनन्त नील व्योम का विकास ले,
समस्त तेज-पुंज ले, प्रकाश ले,
निचोड़ कल्प-वृक्ष का मिठास ले,
बिना नपा, बिना तुला हुलास ले;
उड़ान ले अलभ्य मुक्ति के लिए।
सुमंजु कण्ठ खोल चहचहा यहाँ।’’
मुझे बुला रहा गगन-
‘‘कलाकुमार! हे नवीन सृष्टि के,
खुले पड़े समस्त स्रोत शक्ति के,
कि पी प्रकाश, शक्ति-जो कि पी सके,
पिला उन्हें कि जो पड़े-मरे, थके!
न देखते? अथाह रूप-ज्योति का-
अनादि स्रोत छलछला रहा यहाँ।’’
मुझे बुला रहा गगन-
‘‘लकीर खींच स्वर्ण चंचला-ढली-
कि तारकों-जुड़ी लिए पदावली-
सुकाव्य की सुरम्यसृष्टि कर भली,
गुँजे असीम विश्व की गली-गली!
अरे सरस्वती-कुमार! ले बटोर-
शक्ति-काव्य की सुप्रेरणा यहाँ!’’
मुझे बुला रहा गगन-
‘‘जहाँ मनुष्य गीतहीन जी रहे,
विनीत-भाल कालकूट पी रहे,
कराह से हताश! घाव सो रहे,
न शब्द है कि पीर प्राण की कहे!
निचोड़ आज सत्त्व आसमान का
रस-प्रवाह आज जा बहा वहाँ!’’
मुझे बुला रहा गगन कि
‘आ यहाँ, कि आ यहाँ, कि आ यहाँ!’