चारों ओर से नदी को घेर कर
आकाश
कई दिनों से
उस पर प्रेम बरसा रहा है ...
कभी घनघोर
कभी छिटपुट वर्षा
लगातार हो रही है नदी की देह पर ...
आकाश की
प्रेमाकुलता के समय
नदी भी
उसे भेजा करती थी हृदय-वाष्प
नदी,
कवि हटता है
तुम दोनों के बीच से
अब तुम्हीं सम्भालो आकाश का यह प्रेम तरल — प्रेम विरल
झँझावातों की सवारी से भेजा हुआ ...