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आक्रोश / प्रतिभा सक्सेना

वह एक रात्रि, ऐसी विचित्र अनबूझी,
देखी न कभी थी जैसी वैदेही ने,
नभ औंधी गहरी घोर गुफा हो जैसे,
रजनी दिगम्बरा या कि चाँदनी पहने!

अति निविड़ शान्ति, नीरव वन जल,
सब चित्र-लिखित स्थिर सा,
चित् प्रकृति रह गई हो कर जडवत् सारी
रुक गई श्वास ज्यों हो जीवन की सहसा!

चौंकी सी सीता देख रही आक्रोश जगा प्रत्यंतर
फिर तीव्र अमर्ष-भाव, विचलित करता था उमड़-उमड़ कर!

आवेश जागने लगा हृदय में ऐसा, क्षण में तीव्रता तड़ित सी तन में व्यापी
वैकृतिक रूप धर मैं ऐसा कर डालूँ, पाखण्ड मुक्त हो जाये सारी धरती!

कर उठूँ नृत्य इस पृष्ठभूमि में ऐसा, भैरव ताँडव से डोल उठे यह अंबर,
कर डालूँ उलट-पलट सारे दृष्यों को, इन अंध दिशाओं के आवरण हटाकर!

यह कृत्रिम रेख मर्यादाओं की लाघूँ उलझे धागों को तोड सहज सब कर दूँ,
अतिक्रम करके इन आरोपित मानों का, उत्ताप शमित अपने अंतर का कर लूँ!

हो जाय अंत नाटक का अभी यहीं पर, मैं उलट-पलट दूँ सारे परिदृष्यों को,
सभ्यता-संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाकर, निर्भ्रान्त व्यक्त कर डालूं कटु सत्यों को!

सच की जलती लौ झेल प्रमाण स्वयं दें, अपने को जो आदर्श कहें वे सारे प्राणी,
झकझोर जगा दूँ जग को और दिखा दूँ, प्रतिमानो की व्याख्या में यह मनमानी!

उद्दाम वेग में कुछ करने को उद्यत, आविष्ट हुई सी खडी हो गई सीता,
निद्रित कुश का धरती पर कर फैला था जननी के बढ़े हुये चरणों को छूता!

वह दृष्टि तभी पुत्रों पर जाकर ठहरी, तो सोच-लीन होगई सिया की मुद्रा,
जीवन का महा-समर ये स्वयं लडेंगे पर अभी कहीं खुल जाय न यह सुख-निद्रा!
 
हो गये तरुण सामर्थ्यवान हैं दोनों, अब तक वनवासी बिन परिजन मित्रों के,
कुटिया में सिमटे कब तक रह पायेंगे, पौरुष-पूरित आजानु बाहु पुत्रों के!

अपना परिचय जाने औ राह बनायें, उनकी पहचान उन्हीं के कृत्यों से हो,
सीता सन्नद्ध हो गई कि अब पुत्रों का साक्षात्कार जीवन के सत्यों से हो!
आवेग शान्त हो चला सुचित हो सोचा, यह तो है वाल्मीकि ऋषि का पुण्याश्रम,
आवेश, क्रोध अनुचित इस आश्रय-थल में इस तपोभूमि का भंग न हो अनुशासन!

अंतर में गूँजी मन्दोदरि की वाणी- "नारी तन ले अपने को तुच्छ न मानो,
अपनी अंतर्हित शक्ति जगाओ सीते, दुर्बलताओं को जीतो औ पहचानो!

नारी-जीवन का पुण्य यही है जग में, वह अपने से ही नूतन अस्ति सिरजती,
अपना ही अहं पुरुष लेकर जीता पर, नारी रचती है और उसी में बसती।

उसमें वह हँसती, गाती है, जीती है, अपनी रचना से अपने को रचती-सी,
संपूर्ण इयत्ता वितरित कर, आस्वादन जीवन का उसके माध्यम से करती-सी!"

मैं ही तो व्याप्त हो रही हूँ पुत्रों में, मैं बहा रही अविरल जीवन की धारा,
सामना करेगा कैसे इन पुत्रों का, जो व्यक्ति स्वयं से पहले ही हो हारा!