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आक / सरोज परमार


होंठों पर बैलाडोना की चिप्पी लगाए
उँगलियों की पोरों को माथे में गड़ाए
चल रहे हैं-वहीं
जहाँ शोर है,घुटन है
और है सम्बन्धों की सीलन।
इस धुँधुआते ढेर से शायद
अभी-अभी एक कटु सत्य जम ले
आक के पौधे-सा।
जिस पर
आम आदमी की नज़र नहीं पड़ती