निःशब्द ही अब चल पड़ेंगे अर्थ
जैसे कतार में रेंगती चलती है चीटियाँ,
चलेंगे अर्थ जैसे फूल की पंखुरी पर
चलती है तितली,
अर्थ चलेंगे जैसे गाय भरती है झुरझुरी
और उड़ जाते हैं मच्छर,
इतनी गतिमान और गहराती शान्ति में
असम्भव होगा चुप रह पाना -
रोक कर आत्मसात करना होगा इतने अर्थों को,
मिलना भेंटना होगा अँकवार भर-भर
सारे निहितार्थों से,
पूछना होगा कुशल-क्षेम, सुख-दुख, अता-पता
अनुभूति की देहरी के पार डाल पलक-पाँवड़े
उन्हें आँगन तक ले जाना भाइयो !
बचपन में तो अक़सर ही
आते थे नये-नये अर्थ
भेस धर बिसाती का, कॉंवरियों का,
परब-त्योहार मॉंगने वालों का या
यूँ ही पन्थी-पंछी का धरे भेस
आते थे नित नूतन अर्थ
फेंटा बाँधे या पहने दुपल्ली टोपी
लाठी में लटकाये चमरौधा
क़िस्से ही क़िस्से निकालकर बिसात-सी
बिछा देते थे वे दालान के तखत पर,
चबूतरे पर सिरहाने धरे गिंडी या अँगौछा
झपका कर आँखें कुछ देर,
वे खींच लाते थे सपनों ही सपनों में
आस-पास मॅंडलाती
कितनी ही बातों के अर्थ-
जैसे फूलों की ओर खिंची चली आती हैं
मधुमक्खियाँ
और पताल का मीठा पानी
जैसे चढ़ता चला जाता है फुनगी पर पकते हुए आम में -
तो इस बार इतने दिनों बाद
एक बार फिर उनको रोकना
गो कि सूख चुका है पानी भूगर्भ का
और फूलों का नामोनिशान नहीं दूर तक,
फिर भी अर्थ का टिकेंगे ज़रूर कुछ देर
और जब जाने को होंगे
तो गठरी उठाते-उठाते गुनगुनाएँगे कोई अर्धाली
या हरहराएँगे पीपल की तरह
दे ही जाएँगे तुम्हें वे थोड़ी भाषा और मानुस-गन्ध
और फिर चलते चले जाएँगे मेड़-मेड़
खो जाएँगे
विस्मृत आख्यानों के सुदूर विस्तार में...
हो सकता है
वे लुप्त होकर वहीं व्याप्त हो जाएँ तुम्हारी ही काया में
उनके प्रस्थान के झोंके साथ
हो सकता है अचानक प्रकट हो जाए-
शेरों के सुनहरे अयाल-से लहराते गेहूँ के खेतों से भरा क्षितिज
या तालाब से भाप बनकर उठता वैशाख
और आमों के वृन्तों पर हल्का-सा यौवन-उभार बौरों का,
साथ-साथ झाड़ियों में खोजती झरबेरी आएगी ललमुनियाँ
कॉंटों की नोक पर फुदकती,
कोयल लौट चलेगी सिंहल-द्वीप से,
आर्तनाद-सा प्रचंड सूर्य
उठेगा तूर्य बजाता हुआ,
चौंक कर कान खड़े करेंगे श्वापद और गोवंश,
चबूतरे पर अभी जहाँ बैठे थे अर्थ
वहीं अब धीरे-धीरे
साकार और मूर्त होने लगेगी उनकी अनुपस्थिति
ख़ाली साँचे की तरह,
शायद इसी मिस इसी तरह
फिर वापस लौटेंगे अर्थ
लाएँगे साथ-साथ नयी अभिव्यक्ति
आतप में उत्तप्त...
चॉंदी की तरह तिलमिलाएगी
फ़सल-कटे-खेतों की बलुअर माटी
खलिहानों में चलेगी ओसाई-मड़ाई
मुसकी बॅंधी रहेगी बैलों के मुँह पर
कि खा न सकें भूसा मड़ाई का,
लू की लपटें घुसेंगी घड़े में
बुझाने को प्यास
पर मिलेगा उन्हें वहाँ अर्थहीन शून्य
और फूटी हुई पेंदी
मृद्भांड इतिहास के शून्य को
भर कर लिये चले आते हैं वर्तमान तक-
टीलों में गड़े हुए प्राचीन मृद्भांड
जिन्हें दुष्ट जमाख़ोर
पानी भर कर लगा कर टोटका गाड़ देते थे जमीन में -
बन्धेज हुआ पानी तो रूक जाती थी बारिश
आता था अकाल
तिजोरियों में चॉंदी बरसाता
पानी के साथ-साथ
सारे ही जीवन को करता बन्धेज...
खोदो अगर भाषा को गहरे
खोदो अपने ही आसपास अगर
खोदो और भी गहरे अपने ही भीतर
तो मिलेगा न जाने क्या-क्या बन्धेज
और मुक्ति के अर्थ
नये तेवर के साथ खुलेंगे
जैसे-जैसे खुलेगी यह सुबह...
क्योंकि
जगहर की पहली पदचाप
सुनाई दी है अभी-अभी
गो कि कहीं दूर बहुत गहरे भाषा के गर्भ में...!