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आगामी. / सुकान्त भट्टाचार्य

जड़ नहीं, मृत नहीं, नहीं हूँ अन्धकार का खनिज,
मैं हूँ जीवन्त प्राण, हूँ एक अंकुरित बीज :
मिट्टी में पला हुआ, भीरु,
जिसने खोली हैं अपनी शंकाकुल आँखें आज ।

आकाश के बुलावे पर,
सपनों ने घेर रखा है मुझ को ।

हालाँकि नगण्य हूँ मैं, तुच्छ हूँ वट-वृक्षों के समाज में
तो भी मेरी इस नन्हीं-सी देह में बजती है छुपी हुई मर्मर ध्वनि
चीरी है मिट्टी मैंने, देखा है उजाले का आना-जाना,
इसीलिए मेरी जड़ों में है जंगल की विशाल चेतना ।

आज सिर्फ़ फूटे हैं अंकुर,
लेकिन मुझे पता है,
कल नन्हे-नन्हे पत्ते
उद्दाम हवा की ताल पर सिर हिलाएँगे ।
उसके बाद फैला दूँगा सबके सामने
अपनी मज़बूत डालियाँ,
प्रस्फुटित कर दूँगा विस्मित फूल
पड़ोसी पेड़ों के मुँह पर ।
तेज़ तूफ़ान में भी दृढ़ता से जमी हुई है प्रत्येक जड़ :
हर डाल कर रही प्रतिरोध,
जानता हूँ पराजित होगा अन्तत: तूफ़ान :
जितने भी मेरे नए-नए साथी हैं माथे पर ले कर मेरा आह्वान
जानता हूँ मुखरित होंगे जंगल के नए गीत सरीखे ।
अगले वसन्त में लेकिन मैं मिल जाऊँगा बड़ों की क़तार में,
कोंपलों की जयध्वनि में सब स्वागत करेंगे मेरा ।
नन्हा हूँ मैं, पर तुच्छ नहीं हूँ मैं, जानता हूँ मैं भावी वनस्पति हूँ
वर्षा और मिट्टी के रस में पाता हूँ मैं इसी की स्वीकृति ।
उस दिन मेरी छाया में आना,
फिर अगर तुम वार भी करोगे मुझ पर तेज़ कुल्हाड़ी से
तो भी मैं तुम्हें बुलाऊँगा बार-बार हाथ हिला कर
फल दूँगा, फूल दूँगा, दूँगा मैं पंछियों का कलरव
एक ही मिट्टी पर पला हुआ तुम्हारा अपना साथी ।
  
मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ