चौपाई:-
पूछयो संगिन सब कुशलाई। तबहिं कुशल जब दर्शन पाई॥
कुशल परस्पर वचन उचारा। अब निज कुशल कियो कर्त्तारा॥
आतुर चल्यो विलम्बन लाई। पर्वत छोड़े वसगित जाई॥
नातरु दुष्ट जानि कोउ पंहे। द्वंद उपाधी वहु उपजै है॥
हमकैह पर पहुंचनो आही। मारग मांह विलम्बन लाही॥
विश्राम:-
तत छन ले मैना चले, नेकु न विलमे ताँह।
दुइ दिल दुह निशि अन्तरे, सुवस वसेरा मांह॥100॥
चौपाई:-
कह मैना सुनु राजकुमारा। विधना कियो पन्थ विस्तारा॥
विकट पंथ जो पाछे परेऊ। अवशि काज विधना चित धरेऊ॥
एक शंसय सागरकी आही। सो गुरु गो देव निबाही॥
अब जनि चिन्ता करु नर नाहा। जानो पहुंचे श्रीपुर मांहा॥
अब सब मिलीकरो असनाना। दीजै बोलि दुखी कंह दाना॥
विश्राम:-
खान पान सुख सोवनो, अब सब मिलि सुसताहु॥
धरनीश्वर सुमिरो हिये, जेहि के कर निर्वाह॥101॥
चौपाई:-
आगे एक सरोवर देखा। निर्मल जल जनुगंग विशेषा।
ओ पुर नगर एक तंह भारी। वड वड लोग वसै व्यापारी॥
सब मिलि तहां कीन्ह असनाना। पूजा पाठ ध्यान बहु दाना॥
ओ कत भोजन प्रभुपहुंचाऊ। जो जेहि भावे सो सब खाऊ॥
आसन किये वहुरि वहु भांती। पायो प्रगट परम सुख राती॥
विश्राम:-
प्रात तहांसे रमि चले, मुदित महा मन मांह।
जनु रवि उदय प्रकाशते, सघन कमल वनमांह॥102॥
चौपाई:-
चले जाहिं पथ सकल अनंदा। काहुक जीव दुःख नहि द्वंदा।
तंह होई चलहिं जहां सुख होई। दुख के मारग चलै न कोई॥
डेरा करहिं सबेरा जानी। आसन वासन घूंई पानी॥
रींधहिं परम पवित्र रसोई। अविनाशी कंह अर्पन होई॥
सबकी सुरति रहे पिंजरा पर। एक न परै दूसरा के भर॥
विश्राम:-
निशि दिन करहिं कोलाहल, पूरजन देखन आव।
नारि पुरुष जन वालका, प्रगटहिं प्रेम स्वभाव॥103॥