इस आग के दरिया में डूबे तो हजारों हैं
कितने हैं मगर वे जो उस पार लगा पाये।
रस्तों को रौंदने को हुजूम उमड़ता है
है कौन कहां ‘दशरथ’ जो राह बना पाये।
नारों के, कथाओं के इस शोर की दुनियां में
मौके हैं कहां किसको जो अपनी सुना पाये।
बैठा है जमीं पर जो मोढे की पांयतों में
मोढे पर बैठने का हकदार बना पायें।
इंसान के छूने को नापाक समझते हैं
कोशिश नहीं कि खुद को इंसान बना पायें।
(दशरथ मांझी के लिए, जिस अकेले व्यक्ति ने केवल छैनी और हथौड़ी से एक पर्वत को काटकर रास्ता बनाया।)