थाम लेंगे हाथ जब जलती मसालों को
देख लेना तब लगेगी आग पानी में
नर्म सपनों की त्वचा जो नोचते पँजे
भोंथरे होंगे वही चट्टान से घिसकर
बहुत मुमकिन थरथराए यह गगन सारा
हड्डियाँ बारूद हो जाएँ सभी पिसकर
रोशनी की सुरँगें हमको बिछानी हैं
अन्धेरा घुसपैठ करता राजधानी में
बन्ध सका दरिया कहाँ है आज तक उसमें
बर्फ़ की जो एक ठण्डी क़ैद होती है
लाज़िमी है पत्थरों का राह से हटना
सफ़र में जब चाह ख़ुद मुस्तैद होती है
साहिलों तक कश्तियाँ ख़ुद ही चली आतीं
ज़ोर होता है इरादों की रवानी में
सदा ही बनते रहे हैं लाख के घर तो
कब नहीं चौपड़ बिछी इतिहास को छलने
प्राप्य लेकिन पार्थ को तब ही यहाँ मिलता
जब धधक गाँडीव से ज्वाला लगे जलने
जब मुखौटे नायकों के उतर जाएँगे
रँग आएगा तभी तो इस कहानी में