- आग पेटी / भगवत रावत
फिर से खाया धोखा इस बार
रत्ती भर नहीं आई समझदारी
ले आया बड़े उत्साह से
सीली हुई बुझे रोगन वाली दियासलाई घर में
समझकर सचमुच की आग पेटी
बिल्कुल नये लेबिल नये तेवर की ऐसी आकर्षक पैकिंग
कि देखते ही आँखों में लपट सी लगे
एक बार फिर सपने के सच हो जाने जैसे
चक्कर में आ गया
सोचा था इस बार तो
घर भर को डाल दूँगा हैरत में
साख जम जायेगी मेरी अपने घर में
जब दिखाऊँगा सबको सचमुच की लौ
और कहूँगा कि लो छुओ इसे
यह उँगलियाँ नहीं जलाती
सोचा था इस बार घर पहुँचते ही
बुझा दूँगा घर की सारी बत्तियाँ
फिर चुपके से एक काड़ी जलाऊँगा
और उसकी झिलमिल फैलती रोशनी में देखूँगा
सबके उत्सुक चेहरे
सोचा था इस बार तो निश्चय ही
बहुत थक जाने के बाद
पिता के बंडल से एक बीड़ी अपने लिए
चुपचाप निकालकर लाऊँगा
और सुलगाकर उसे इस दियासलाई की काड़ी से
उन्हीं की तरह बेफिक्र हो कुर्सी की पीठ से टिक जाऊँगा
और भी बहुत कुछ सोचा था
लेकिन...
दुखी हो जाते हैं मुझसे घर के लोग
भीतर ही भीतर झुँझलाने लगते हैं मेरी आदत पर
उनकी आँखें और चेहरे
मुझसे कहते से लगते हैं
कि जिससे चूल्हा नहीं जला सके कभी
उसके भरोसे कब तक सपने देखोगे
मैं भी कुछ कह नहीं पाता
और घर में एक सन्नाटा छा जाता है
कोई किसी से कुछ नहीं बोलता
बड़ी देर तक यह सूरत बनी रहती है
फिर धीरे-धीरे मन ही मन सब एक दूसरे से
बोलना शुरू करते हैं
कोई एक आता है और चुपचाप एक गिलास पानी रख जाता है
थोड़ी देर बाद कोई चाय का कप हाथ में दे जाता है
इस तरह अँधेरा छँटने लगता है
मैं देखता हूँ, मैं अपने घर में हूँ
घर में दुख इसी तरह बँटता है।