आजु सखी प्रातकाल, दृग मींडत जगे लाल,
रूप के बिसाल सिंघु, गुनन के जहाज।
कुंडल सौं उरझि माल, मुख पै अलकन को जाल,
भई मैं निहाल निरखि, सोभा को समाज॥
आजु सखी प्रातकाल, दृग मींडत जगे लाल,
रूप के बिसाल सिंघु, गुनन के जहाज।
कुंडल सौं उरझि माल, मुख पै अलकन को जाल,
भई मैं निहाल निरखि, सोभा को समाज॥