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आज / श्रीधर करुणानिधि

वही हुआ
जिसका सबको डर था
एक छोटी-सी चिड़िया लौटी

तो देखा उसका घोंसला ग़ायब था
वह रोती रही रोती रही
चुप हुई तो देखा सामने रात पड़ी थी
एक घनघोर अन्धेरी रात !

आज गाँव के कारीगर की साइकिल खो गई
उसके सारे औज़ार उसी पर बन्धे थे
उसे रोना आया, पर वह रोया नहीं
उसे काम पर जाना था, पर वह गया नहीं
अब उसके आगे भूख पड़ी थी
और वह बदल रही थी एक भयानक आग की लपट में
ठीक उसके बीबी-बच्चे के सामने ...
वह पास के जंगल गया
और उदास बैठा रहा, बैठा रहा
कि देखा जंगल ही ग़ायब है
उसके मोटे-मोटे पेड़
जिससे निकलती थीं बेशक़ीमती लकड़ियाँ
सब ग़ायब !

आज स्कूल जाते बच्चे की पेंसिल खो गई
पहले वह बहुत ख़ुश हुआ
उसकी सपनों सी आँखों में
उधम मचा रहे थे कई खेल
पर अचानक याद आते ही
वह ढूँढ़ने लगा इधर-उधर
गड्ढों में, धूल-भरी सड़क पर
हर जगह, जहाँ उसने सोचा
हर जगह, जहाँ दूसरों ने कहा
फिर वह ख़ूब रोया, ख़ूब रोया
चुप हुआ तो देखा आँखों के आगे ढाबे थे
चाय की दुकानें थीं
जूठे कप-प्याले थे बिखरे हुए...
उसने देखा उसके शरीर से बचपन ग़ायब है

आज किसान के खलिहान से अनाज का बोझा खो गया
पहले वह उसे ढूँढ़ लिया करता था अपने खेतों में
लेकिन उसे अब वहाँ ढूँढ़ना बेकार था
वह रो नहीं सकता था
इसलिए रोया भी नहीं
उसने सोचा
और अचानक बहुत डर गया वह
देखा उसकी आँखों से सपने ग़ायब हैं

लेकिन अभी-अभी एक नई बात हो गई
जो पहले कभी नहीं हुई ...
जब सब अपनी-अपनी जगह से बाहर निकले
जो एक रास्ता था वो ही ग़ायब था
कोई भी समझ नहीं पाया कि
इस पर हंसा जाए कि रोया जाए
लेकिन अब डर सबकी आँखों में था