ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चांद पर बदली गहन आ छा गयी !
यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !
आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !
फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !
उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !
रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !
सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !
मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !
लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !
इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !