दर्पण में रूप अपना निहारते हुए
मुग्ध घण्टों तक
प्रिय के उपभोग के चिह्न
नखक्षत, दन्तक्षत...
नहीं देखती वह
आँखों पर चश्मा लगा कर
डायरी में नोट करती है वह अचानक
दूध या धोबी का हिसाब..
नितप्रति पून्यौ का उजास फैलाने वाली
नायिकाएँ
अब ख़ुद
वे खटती हैं रसोई में
भीतर के अन्धेरे को धकेलती हुई
संचारिणी दीपशिखा अब वह नहीं रही
जो हाथ में वरमाल लिए निकले
राजाओं के बीच से
जिसके गुज़र जाने पर उनके चेहरे फक्क पड़ जाएँ
रात की पारी ख़तम कर वह स्वयं विवर्ण मुख से भयाक्रान्त निकलती है
किसी कॉल सेण्टर से
इस आशंका के साथ कि
उसके साथ भी कहीं भी वह हो सकता है
जिसकी दहलाने वाली ख़बरों से भरे होते हैं
रोज़ के अख़बार
उसके मन के दिये पर फिर भी
जल रही होती है आशा की दीपशिखा ।