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आज की नारी / लता अग्रवाल

झिलमिलाती रोशनी के शहर में
बैठा है घनघोर अॅंधेरा
खोखली हुई हैं संवेदनाएँ
प्राण भी हैं बेसहारा
गम की परछाइयों के पीछे
तुम्हें जाने न दूँगी
आइना हूँ तेरा मैं
दरकने तुझको न दूँगी
भूख और लाचारी का
द्वार पर सन्नाटा है पसरा
खौंफ का बियावान
आंगन में तेरे है उतरा
मंजिल पर पहुँचने से पहले
कदम ये रूकने न दूँगी
हौंसला हूँ तेरा
यूं टूटने तुझको न दूँगी
पत्थरों के देश में
दिल भी पत्थर के हुए हैं
जिन्दगी हुई खेल के मानिंद
आज है और कल नहीं
पाषाण प्रतिमाओं के बीच
सिमटने तुझको न दूँगी
अस्मिता हूँ तेरी मैं
मनुजता तेरी खोने न दूँगी
कुरूक्षेत्र की रणभूमि है ये
फिजाओं में विष है भरा
नफरतें भी होगी, साजिशें भी
साजिशों के दुष्चक्र में
अभिमन्यु कोई फसने न दूँगी
आँखों से मोह की पट्टी
उतार दी है मैंने
द्रोपदी की लाज को अब
दु: शासन के हाथों लुटने न दूँगी
भारत में महाभारत कोई
होने न दूँगी
श्रापित हो पाषाण में निर्दोष
अहिल्या कोई ढलने न दूँगी
धर्म के ठेकेदारों को
सीता कोई छलने न दूँगी
आज की नारी हूँ मैं
खुद को कर लिया
बुलंद मैंने
मैं चलूँगी
जग चलेगा साथ मेरे
फिर कोई इतिहास अब कलंकित
मैं रचने न दूँगी।