आज चल रे तू अकेला!
आज केंचुल-सा स्खलित हो असह माया का झमेला!
जगत् की क्रीड़ा-स्थली में संगियों के साथ खेला-
सघन कुंजों में पड़े तूने स्त्रियों का प्यार झेला-
आज वह आया बुलाने जो सदा निस्संग ही है-
कूच का सामान कर अब आ गयी प्रस्थान बेला!
दु:ख कैसा? मोह क्यों? क्या सोचता अपना-पराया?
बेधड़क हो साथ ले चल जो कभी तू साथ लाया!
जिन्दगी के प्रथम क्षण में चीख कर तू रो उठा था-
आज भी क्या वह कलपना ही तुझे बस याद आया?
हाँ, जगत् तेरे बिना आबाद वैसा ही रहेगा-
दूसरों के कान में वह दास्ताँ अपनी कहेगा।
तू न मुड़-मुड़ देख, धीरज धार अब अपने हृदय में-
कौन आ कर हाथ तेरा इस निविड पथ पर गहेगा?
घूम कर पथ देखने वाले अनेकों और आये-
मूक हो कर बढ़ गये, सब एक आँसू बिन गिराये :
भर नजर लख, जान लेते वे कि यह हो कर रहेगा-
कौन कैसे लौट सकता काल जब आगे बुलाये?
पथ स्वयं ही काल है, गुरु और शासक भी वही है,
उस तरुण के वृद्ध हाथों में खिलौना-सी मही है।
धीर गति से वह बदलता जा रहा नित खेल के पट-
चित्रता पर उस चतुर की आज तक यकसाँ रही है!
जन्म जाने मूढ़! तूने कौन-से तम में लिया था,
किस अँधेरी रात में अभिसार का अभिनय किया था!
आज संचित स्नेह के तू कोष खोल उदार हो जा-
जोड़ मत अब, सोच मत अब क्या किसे तूने दिया था
ज्योति अन्तिम अब जला ले दो घड़ी कर ले उजेला-
आज चल रे तू अकेला!
आगरा, नवम्बर, 1936