आज तय हुआ कि इस तरफ़ खाई है उस तरफ़ कुआँ
इसलिए मैं न दाहिने मुड़ूँ न बाएँ जाऊँ
इन दोनों मुश्किलों के बीच मैं खड़ा रहकर चिल्लाऊँ
कि कौन हैं ये पगडण्डी तक की जगह न छोड़ने वाले
आएँ खुलकर वे दाएँ मेरे और बाएँ
समझाएँ अपनी इस कारस्तानी के पीछे का मंशा जरा तफ़सील से
क्यों ठोंक रखा है इस तरह पदातिकों को
ईसा की तरह एक-एक बिन्दु पर कील से,
कि वे हिल नहीं सकते एकाएक पहुँचकर यहाँ,
जहाँ से उन्होंने मुड़ने का उतना नहीं बढ़ जाने का इरादा किया था —
उन्होंने अगले ज़माने के यात्रियों से सुनकर यह रास्ता लिया था,
सोचा था गंतव्य तक पहुँच जाएँगे,
गाते हुए प्रभु के गीत एक समुदाय में —
मगर यहां समुदाय तो क्या एक के भी
आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं है
कोई समझाए कि कैसे यह हुआ,
एकाएक इस तरफ़ खाई, उस तरफ़ कुआँ पलक मारते !
जादू-मन्तर तो ख़ैर आप लोगों में से कोई जानता नहीं है,
जानना तो दूर कोई उसे मानता नहीं है
तब फिर यह आपका साइंस है, आपकी राजनीति का ह्रास
वह बेशक है आप दोनों के पास —
उसी के बल पर आप लोगों में से एक ने
यों कि यह दाएँ न मुड़ पाए, खाई बना दी
दूसरे ने यों कि बाएँ न मुड़ पाए, कुआँ तैयार कर दिया
जबकि हमें सीधा जाना था
हमने अपने दाहिनी या बाईं तरफ़ अपना गन्तव्य कहाँ माना था
मगर आप लोगों ने अपने भय को भूत की शक़्ल में देखा
एक रेखा तक नहीं छोड़ी कि
पाँव जमाकर
उस पर यह छोटा सा फ़ासला तय कर सकते
हम खाई और कुएँ के बीच का !
लगता है हम जहाँ रुके हैं, वहीं से ऊपर उठकर
आकाश को मार्ग बनाना पड़ेगा
नए किसी ढंग से स्वातंत्र्य-पर्व मनाना पड़ेगा
कि किसी दल के गड्ढे में न गिरना पड़े —
एक जगह खड़े-खड़े ऐसी शक्ति पैदा कर लेना
हमारे हाथों सिद्ध होगा
यह नया द्वन्द्व दाएँ और बाएँ का
हमारे हाथों विद्ध होगा !
13 दिसम्बर 1975
रचनावली खण्ड 5 (सम्पा. विजय बहादुर सिंह)