आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा।
तुम पर्वत हो, अभ्र-भेदी शिला-खंडों के गरिष्ठ पुंज
चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो,
तुम्हारे रन्ध्र-रन्ध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूट कर मैं बहूँगा।
तुम्हीं ने दिया यह स्पन्द
तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ।
गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छन्द
तुम्हें पहचानता हूँ।
माँगो तुम चाहे जो : माँगोगे, दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा।
आज नहीं, कल सही
कल नहीं, युग-युग बाद ही :
मेरा तो नहीं है यह
चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो।
मेरा भाव-यन्त्र? एक मडिय़ा है सूखी घास-फूस की
उस में छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान-
साध्य नहीं मुझ से, किसी से चाहे सधा हो।
आज नहीं, कल सही
चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाये यह आग मैं रहूँगा?
आज तुम शब्द न दो, न दो-कल भी मैं कहूँगा।
दिल्ली, 21 अगस्त, 1953