आज फिर मैंने शराब पी
यानि कि किया ख़ुद को शर्मिंदा बहुत
लगाये बीसियों सिगरेट के क़श
तुमको भूल जाने के बहाने ढूँढे कई
दिल को सुनाई दो एक नज्में
दो एक कहानियाँ
कुछ एक में ठहराया कसूरवार ख़ुद को
तकते रहे दरीचे से बाहर
न जाने किसको, न जाने क्या
बन के कोई मग्मूम तस्वीर
याद आती रही पिछली पीतें
उड़ते रहे यादों के रेज़े
दिल-ओ-दिमाग की पुरपेच गलियों में
रह-रह के दुखती रहीं अन्फास की गिरहें
तज्किरों ने दिए शिकन ज़बीनों पर
बुत बने बैठे रहे जाने किस ख़याल में
बे-सूद गयी ख़ुद को बहलाने की हर कोशिश
दुनिया मगर हर दफे
होश में कड़वी लगी...