आज फिर वही शॉल
ओढ़े बैठी हूँ
जिसके किनारे से
पूछे थे तूने
अपने झूठे हाथ
और
याद है
लटकाए फिर रहा था
गले में तू मेरे इसी शॉल को
मेरी सारी ममता पर
हक़ का दावा करते
दूसरी बार भी...।
आज फिर वही शॉल
ओढ़े बैठी हूँ
जिसके किनारे से
पूछे थे तूने
अपने झूठे हाथ
और
याद है
लटकाए फिर रहा था
गले में तू मेरे इसी शॉल को
मेरी सारी ममता पर
हक़ का दावा करते
दूसरी बार भी...।