Last modified on 7 मार्च 2010, at 17:20

आज भी / चंद्र रेखा ढडवाल

बस पकड़ने को भागती
जल्दी-जल्दी में भी
वह घेर लेती है पल्लू से
उदड़ता जाता कन्धा
एड़िया~म तक ढँकी होने को लेकर सतर्क
कि न पिसे दो पाटन के बीच


अधिकारी के कक्ष से लौटते भाँपती है
देखना कनखियों से सहकर्मियों का
उसे घूरते एकाएक बंद हो गए
क़हक़हों के बाद की चुप्पी
बतियाती है उससे
न चाहते हुए भी
गले पड़ गुनगुन करती
कह जाती है कितना ही कुछ
अनमनी-सी खोल नहीं पाती
कई-कई बार तो खाने की डिबिया भी


कागज़-पत्र सँभालते वही
सहज होने लगती है
घर की दहली़ज़ लाँघ
भीतर आते ही
घोंस लेती है आँचल कमर में


दिन भर औरों को सूँघती औरत
नहा जाती है अपनी गंध में
खौलते पानी की सरगम पर
भाँपा / सुना विस्मृत कर
गुनगुनाने लगती है
अपनी धुन में.