जैसे यह तारों भरी रात, मैं वैसा ही आपुलक गात!
मैं जाने क्यों यों पुलकाकुल? खिल रहे भाव विभ्रम-संकुल!
लद गया मुकुल के भार बकुल, आती अनजानी चारवात!
होने को कारा मुक्तद्वार, करने को मन-पंछी विहार,
हिल रहा गगन में विजयहार, आने को नव मधु का प्रभात!
तम की आहुति देकर प्रकाश, पाया दे आँसूजल सुहास,
जीवन न मृत्यु का बना ग्रास--यह नहीं, अरे मन, तुच्छ बात!
था जाने किसका छिपा हाथ? है जाने मेरे कौन पास?
कोई भी स्नेही नहीं साथ, पर कितना खुश हूँ आज रात!
है बीज वृक्ष में कौन सत्य? कह पुष्प सत्य? क्या फल असत्य?
यह सब अनित्य, पर क्या न सत्य? जीवन की यह सत्ता न स्यात!
वह था, है भी, होगा निश्वय, जीवन की सत्ता हुई न क्षय!
मैं क्यों न सत्य को वरूँ अभय, चाहे पथ रोकें सिन्धु सात!
ढह गईं बहुत-सी आस्थाएँ, बदली हैं बहुत अवस्थाएँ,
अब ढ़ाल नई तू संस्थाएँ, जिनमें जागे नव अप्रज्ञात!