आज साथ हम लेकिन कल ही
जाने कौन कहाँ पर होगा!
मधुर मिलन के जो दो-चार
मिले क्षण, सुख से उन्हें बितावें;
आपस की भूलों पर हम यों
व्यर्थ न इतनी बात बढ़ावें।
अपने-अने भीतर देखें
हम, तो दोष सभी का होगा॥1॥
कष्ट और चिन्ताएं यों ही
क्या कम हैं बाहर जीवन में;
साथ चलो मेरे दिखला दूँ
पग-पग पर फैलीं है मग में।
इनकी संख्या और बढ़ा कर
बोलो लाभ कौन-सा होगा?॥2॥
आज मिलन का प्रात हुआ तो
रात बिरह की भी होतीहै;
किंतु मिलीं जो घड़ियाँ मिलन-
बिरह के बीच, नहीं खोनी हैं।
गयी व्यर्थ भी एक घड़ी तो
फिर पीछे पछताना होगा॥3॥
यह तन तो यों ही नश्वर है
आस नहीं इसकी क्षण भर भी;
अपनी ही है साँस किंतु
विश्वास नहीं उसका पल भर भी।
बोल रहा जो आज न जाने
किस क्षण मौन सदा को होगा।4॥
यह जीवन का मेला है जो
जगह-जगह लगता रहता है;
आज यहाँ, कल वहाँ, निरंतर
इसका क्रम चलता रहता है।
हम न रहेंगे तो भी इस
मेले का लगना बंद न होगा॥5॥
सितम्बर, 1958