आज सुबह-सुबह
तुम थीं,
संगीत था
मेरे भीतर के
आकाश और केन्वस पर
धूप थी,
फूल थे
और थे मेरे गुरु:
वे कविवर, सदानीर
सच्चिदानन्द, बहुत आसपास
हाथ में जल का पात्र लिये
अपने वृक्षों को सींचते,
झाड़ी में चहचहाते
अनगिन पक्षियों को सुनते
और मुझको बतलाते
कहाँ-कहाँ से वे किस
पौधे को लाये थे
अब कैसे कहूँ
कि वे कितने वर्ष बाद
यूँ अचानक कविता
तुम्हारे संग
चले आये थे!