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आज सुबह-सुबह: 2 / सुनीता जैन

जब आप अपने
भव्य शरीर को
हमें सौंप गए

कि हम उसे
घी और चंदन को
भेंट दें

मैंने पूछा था:
गुरुवर, वाणी का
क्या होगा?

उसे तो
छोड़ दिया होगा
वृक्ष पर ही, आपने,
उस काठ-प्रकोष्ठ में
जो तभी-तभी
तैयार किया था-

शायदकाल की
आ रही गदा को झेलने
यह सुरक्षा-अनुष्ठान था?

मैंने तब भी
प्रणाम कर
झोली पसारी थी,
क्या मेरी वह
विनती कवि
आपने
स्वीकारी थी?