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आठ / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

समझा था जिसे फूल वही काटा है निकला
चुभ-चुभ हृदय में बार-बार साल दे गया
कलेजे को थाम लूँ किस तरह कोई कह दे
बुढ़ापे में आके हाय। एक मलाल दे गया

बिखरे हुए शबनम को उठाऊँ तो किस तरह
छूते ही ऊंगलियों से लूढ़क दूर जा गिरा
आँसू में बहे दिल को मीत कैसे पकड़ूँ
चाहों तो मगर होके मजबूर जा गिरा

तूफान के आगे क्या बदली की चली है
एक झोंका आया बदली बाद बूंद बन गई
दिल की इमारत को बचाता तो किस तरह
वह टूक-टूक होके आँसुओं में बह गई

क्या कहूँ मैं उसके बाद भी तो चैन नहीं है
सीने में एक दर्द भी कमाल दे गया
रोऊँ भी किस तरह, अब आँसू भी नहीं है
चेहरे का, दिल का, आँख का, पानी उतर गया

आँसू ने मेरी हसरतों को लूट लिया है
और उलझा-उलझा-सा एक सबाल दे गया