सदियों पहले जैसे थे वैसे ही हम हैं
खुद को उड़ा-उड़ाकर सबको उड़ा रहे हैं
ऋषियों के वंशज को हर पल चिढ़ा रहे हैं
पगलाए दैत्यों-से समझो कुछ ही कम हैं ।
मरे हुये हैं लोग अर्थी के संग लगे जो
जिन्दा हैं वे, जो जिन्दांे को दफनाते हैं
किसी सभा में, देवालय में फट जाते हैं
सो जायेंगे देवपुत्रा सब, अभी जगे जो !
जल पर, थल पर, नभ पर भी आगिन का पहरा
हवा जहर से इन रोजों तो मिली हुई है
काॅफिन पर चादर है, वह भी सिली हुई है
गौतम का दुख इतना कभी नहीं था गहरा ।
पूनम की रजनी से अब तो आग टपकती
चढ़ी हुई सूली पर साँसे मिलीं सिमटती ।