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आत्मद्वन्द / अशोक तिवारी

आत्मद्वन्द

तैर रहा हो जब वक़्त
किसी की आँखों में
एक हिंसक की तरह
दिशाएँ तैयार हों गुमाने आपको
अपनी भूल-भुलैया में
मौसम अपने पुरज़ोर असर के साथ
हावी हो कुछ चमकती आँखों में
अपने कपोल-कल्पित लुभावने सपने के लिए
जहाँ पहुँचने से पहले
चमचमाती खून भरी सड़कें
खो जाती हैं चौराहों पर एक-दूसरे में

ठहरकर देखता हूँ
आधा दर्जन दशकों को
गर्दन घुमाकार पीछे की और
ज़िंदगी में तय किये गए
क़दमों की नाप को ....
कई चेहरों के साथ
गड्ड-मड्ड होने लगता है मेरा अपना चेहरा
कई-कई और चेहरों में
और मैं भूल जाता हूँ
अपने चेहरे का असली रंग-रूप और नाक-नक्श
याद आए चेहरे
होने लगते हैं धूमिल
दौड़ने लगता हूँ
सफ़र को और भी रोमांचक
और हसीन बनाने
फूलने लगती है मेरी साँस
उड़ने लगती हैं दिन में
तितलियाँ आँखों के सामने
नज़र आता है गहरा समंदर
खेल के मैदान सरीखा
पसरा पड़ा है जो बिलकुल शांत

चीज़ें उठकर जाने लगती हैं
यकायक अगले ही क़दम के पार
अपनी जगह से दूसरी जगह
दूसरी जगह की चीज़ें
खिसककर हो जाती हैं थोड़ा और आगे
मुँह बिचकाकर
चीखने लगता है सन्नाटा
और सन्नाटा कोलाहल के साथ गलबहियाँ डाले
महसूस कराता है अपने को असहज

क़िस्म-क़िस्म के पहाड़ बनने की गाथा
मथ रहा हूँ मैं
अपने अंदर और बाहर
क्योंकि मैं जो कुछ भी हूँ
तराशना चाहता हूँ अपने आपको
पर होना नहीं चाहता पत्थर
किसी भी सूरत में !!
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