निष्प्रयोजन ही दिए तुमने मुझे प्रिय, दान
भुवन में जिनके समान न अन्य दान महान
यह महार्णव का विशद आयाम
यह सरोवर का सलिल वैदूर्यमणि-सम श्याम
नन्दनोपम यह महावन, यह कुसुम-उद्यान
यह विहंगाकुल मुकुल-संवीत विटप-वितान
ताकांकित यह गगन-तल, यह क्षितिज-मैदान
कर रहा अध्वर्यु-सम तप-यज्ञ यह हिमवान
यह मनोरम रश्मिवर्मपिनद्ध स्वर्ण विहान
पाण्डुरारुण सान्ध्य रवि का यह सुखद अवसान
रख कर जिनकी अचिन्तितपूर्व छवि सन्तत हुलसते प्राण
विच्छुरित सर्वत्र जिनका विम्ब दिनमणि के प्रकाश-सामन
पर न जो शिवतत्त्व के संकेत या प्रतिमान
पर न जो वरणीय या आराध्यतम ऐश्वर्य के व्याख्यान
निष्प्रयोजन दिए तुमने मुझे दुर्लभ दान
नहीं जिनके अर्व या खर्वांश-सम विज्ञान के वरदान
दान वे अद्भुत, अपार्थिव, असाधारण दान
दान वे चिति-चिन्तना के दिव्यतम आख्यान
सुमति, प्रज्ञा, चेतना, संकल्प, अध्याहार
मनीषा, प्रणिधान, मेधा, तत्त्वग्रहण विचार
कल्पना, अनुभूति, मार्मिक व्यंजनावैचित्र्य
सृजन का सामर्थ्य, दर्शन-दृष्टि का वैविध्य
बुद्धि का मैं हूँ अतिथि, भू-स्वर्ग का ईशान
उपनिषद का ज्ञान, ऋग्यजुसाम का विज्ञान
निरख कर मम दान, जो तुमसे मुझे उपलब्ध
कर रहे उनकी स्पृहा पशु-पक्षि-कीट-पतंग
मूक कुण्ठित-से ठगे ठिठके अचल पाषाण
विस्मयाकुल चकित किम्बा स्तब्ध द्रुम फलवान
यदि न ऐसे दान की संप्राप्ति से भी-
हो सकूँ मैं आप्तकाम, मनस्क, यतिगतिमान
और अपने प्रति रहूँ मैं पूर्ण निष्ठावान
तो न क्या मैं अल्पभोगी, अल्प में आसक्त
तो न क्या मैं अल्पदर्शी, निखिल से परित्यक्त
तो न क्या जाने बिना मैं बन रहा मतिमान
तो न क्या जाने बिना मैं कर रहा पाण्डित्य का अभिमान
(‘सरस्वती’, होलिकांक, मार्च, 1964)