Last modified on 26 दिसम्बर 2009, at 22:39

आत्मीयता का मूल्य / रमा द्विवेदी

मेरे घर के चारो ओर हरियाली ही हरियाली है,
रंग-बिरंगे फूलों की सजी-धजी क्यारी है।
लोगों से कई गुना अधिक यहाँ फूल बेशुमार हैं,
पर जहाँ देखो वहां गाडियों की कतार है॥

घर में है बगीचा या बगीचे में है घर,
होता है मुझे भ्रम यह अक्सर।
पर मेरे मन में है पतझड,
यहाँ आदमी कम ही होता है दृष्टिगोचर॥

कितना दुख है अकेलेपन का यहाँ ?
कितना इन्तज़ार है किसी के होने का यहाँ ?
मेरा मन तड़पता है किसी से मिलने को यहाँ,
लड़ने-झगड़ने व रोने-हँसने को यहाँ॥

फूलों की ओर एकटक देखती हूं मैं,
कितने खुश हैं ये अकेले रह कर यहाँ ?
मेरे मन में क्यों इतना गहरा अंधकार है?
क्यों मुझे किसी से मिलने का इन्तजार है?

अकेलापन मानव को दीमक की तरह खा जाता है,
आत्मीयता में मानव अदृश्य- शक्ति पाता है।
काश! मुझे भी यहाँ अपनेपन का अहसास होता,
मेरे मन का सुकून यहाँ यूँ तो न खोता॥

(अमेरिका प्रवास के समय लिखी गई कविता)