हम जीवन पर्यन्त छलते हैं अपने को
अपने आसपास के सन्दर्भों को, सम्बन्धों को
लोभ आत्म प्रवाह से
तोड़ते हैं सत्तता के अनुबन्धों को
किताबें, धर्मग्रन्थ, श्रुतियाँ कुछ भी कहें
हम स्वार्थजनित पूजते रहे कबन्धों को ।
हमने बनाए कितने सारे विधान-वितान
ग्रहण किए, बाँटे विविध ज्ञान-विज्ञान
किन्तु सतात्मग्रही नहीं हो सके
बार-बार दोहराते रहे इतिहास के छन्दों को ।
यूँ तो हम सभी जानते हैं
सच क्या है, झूठ का अर्थ क्या है
किन्तु मनसा, वाचा, कर्मणा छलते रहे
आत्म-अनात्म के अन्धेरे में अपने वन्दों को ।
कोलकाता, 2 अप्रैल 2014