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आदत जलाने की / हरेराम बाजपेयी 'आश'

आदत जो पद चुकी है
जलाने की
कभी भी कहीं भी कुछ भी
बस जला देते हैं
गोया कि जलाने की
परम्परा निभा लेते हैं।
घर में चिराग
(भले चिराग ही घर जला दे)
सामाजिक बुराइयों
अनचाहे नेताओं या
जिन्हें जला नहीं पाते
उनके
पुतले जालना आमबात है
होली, लंका/रावण
धर्म के नाम पर
युगों युगों से जलाए जा रहे हैं,
और कर्म के नाम पर
रेलें बसें, घर, दफ्तर, बाजार
जंगल, पहाड़, बर्फ
औरतें, बच्चे,मर्द
गाँव, शहर, देश
भाषा, संस्कृति, परिवेश
क्या नहीं जलाया जाता
कभी वेग में, कभी मदहोश में
कभी जोश में, कभी आक्रोश में,
कभी तन के लिये, कभी धन के लिये
कभी मन के लिये, कभी चमन के लिये
कभी खुद के लिये,कभी गैरों के लिये
कभी बिना परवाह किए
कभी वाह वाह के लिये
दिवाली पर लाखों दीप
खुशियों के लिये जलाते है, जलाते आएँ है
पर आज तक दूर नहीं हो सकी
गरीबी की काली रेखाएँ
होली तो जलती है साल में एक बार
पर बहन बेटियाँ और माँएँ
जलाई जाती है रोज हजार हजार
रावण गली गली पल रहे हैं
धर्म के नाम पर लंकाएं
फल फूल रही हैं
सच्चाई के प्रतीक हनुमान
महंगाई अन्याय/ अराजकता की
एजी में जल रहे है
इन्हें जलने से कोई नहीं रोक पायेगा
क्योंकि आदत सु पड़ चुकी है, जलाने की
चाहे किसी का जी जलाए या जहान
महान देश की आजादी महान॥