आदमियों के
जेब कतर लेते हैं
बढ़े-चढ़े मूल्यों के उपन्यास
आँख से पढ़ कर
दिल और दिमाग से
भोगना पड़ता है संत्रास
(रचनाकाल :26.11.1968)
आदमियों के
जेब कतर लेते हैं
बढ़े-चढ़े मूल्यों के उपन्यास
आँख से पढ़ कर
दिल और दिमाग से
भोगना पड़ता है संत्रास
(रचनाकाल :26.11.1968)