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आदमी की यंत्रणा / बीना रानी गुप्ता

सड़क के चैराहे पर बैठा था
बूढ़े बरगद-सा एक आदमी।
जिसके सिर और दाँतों में था पतझड़
आँखों में कोहरे सी धुँध
अपने गालों की हड्डियों में,
छिपाये था वह असंख्य गाथाएँ
दूसरों की कम अपनी अधिक।
झुर्रियों में दुबकी बैठी थी उसकी थकानें
फिर भी वह अपनी सूखी हड्डियों से
गाँठ रहा था उस मजबूत जूते को।
जो एक माँसल शरीर ने आगे बढ़ाया था
वह लोहे की सख्त पट्टी पर
जूते को रख ठोंकता था कील
उस वक़्त हाथों की उभरी हड्डियाँ
उभर आयी थीं और अधिक।
पहले इन हाथों में न थी ऐसी उभरती रेखायें
जब उसके जिस्म का खून न था
ठहरे हुए पानी-सा।
आज रखता है कोई माँसल शरीर
ठहरे हुए पानी के सामने धूल भरा जूता।
और ठहरा हुआ पानी
उस समर्पित धूल को पोंछता है
फिर चमकाता है अपने रक्तविहीन हाथों से
और पाता है क्या सिर्फ चंद पैसे।