तो क्या सचमुच आदमी हूँ मैं ...?
क्या वो भी मेरे जैसे ही होते हैं
जो आदमी होते हैं ...
क्या वो भी रेंगते हैं, कीड़ों की तरह,
घिसटते हैं सरिसृपों की तरह ?
क्या वो भी होते हैं,
ठंडे और स्पंदनहीन,
लाश की तरह ...।
क्या उनमें भी होता है
ज़हर मोहरा, सांप की तरह?
क्या सचमुच आदमी ऐसे ही होते हैं ?
जैसा हूँ मैं,
रेंगता, घिसटता, ठंडा और स्पंदन हीन
फिर भी प्रतीक्षा में डसने का मौका मिलने की ।