मन को, मीत, मनाओ रे।
सपने हैं, जो घेर रहे, अपने मन को समझाओ।
पौरुष तो निर्भय बढ़ता है,
भाग्य-पाठ वह कब पढ़ता है?
अपना पंथ आप गढ़ता है;
अपनी आप बनाओ।
राह चुनो अपनी अपने से,
क्या होगा केवल सपने से?
मुक्ति नहीं माला जपने से,
व्यर्थ न आयु गँवाओ।
एक मार्ग है और एक ही
वीरों की है अमर टेक भी,
पग पीछे क्यों हटें नेक भी!
साहस है? तो जाओ।