स्वीकारो, सखि
जैसा भी यह
आधा-परधा गीत हमारा
बाँची थी ऋतुगाथा हमने
तुम-सँग, सजनी, बरसों पहले
भीतर तक उजास व्यापे थे
देह-पर्व से हम थे बहले
क्षीरसिंधु से
सींचा तुमने
हमने किया उसे भी खारा
महानगर आ सीखी हमने
नये ज़माने की चतुराई
अंधे युग की ठगविद्या की
रह-रह देने लगे दुहाई
अब हिरदय में
हाट आ बसा
कहाँ सहेंजे नेह तुम्हारा
फूलों की पगडंडी थे दिन
वे भी जाने कहाँ बिलाये
झुर्री-झुर्री हुई देह में
नागफनी के हैं बस साये
आन देस
जा बसा देव वह
जिसका हमने मंत्र उचारा