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आधा-परधा गीत हमारा / कुमार रवींद्र

स्वीकारो, सखि
जैसा भी यह
आधा-परधा गीत हमारा

बाँची थी ऋतुगाथा हमने
तुम-सँग, सजनी, बरसों पहले
भीतर तक उजास व्यापे थे
देह-पर्व से हम थे बहले

क्षीरसिंधु से
सींचा तुमने
हमने किया उसे भी खारा

महानगर आ सीखी हमने
नये ज़माने की चतुराई
अंधे युग की ठगविद्या की
रह-रह देने लगे दुहाई

अब हिरदय में
हाट आ बसा
कहाँ सहेंजे नेह तुम्हारा

फूलों की पगडंडी थे दिन
वे भी जाने कहाँ बिलाये
झुर्री-झुर्री हुई देह में
नागफनी के हैं बस साये

आन देस
जा बसा देव वह
जिसका हमने मंत्र उचारा