अपनी पूरी छाया से खेलता
देख अपने समानान्तर अधूरी छाया
कौतुक से ऊपर देखकर
बच्चा हैरानी से चिल्लाया
अरे! आधा आदमी! आदमी आधा!
मेरी आवाज से बच्चा सहमा
चुप अपनी आवाज समेटता हुआ
मेरी आवाज!
मैने हर वक्त सुनी
खो न दूं कहीं अपनी आवाज
जीवन–छंद के पूर्ण गान के लिये
हर पल हर सांस
स्वर्ण रजत पहुरूओं के साथ
चार छंदों की एक तान बुनी।
कहां थी मेरी आवाज?
आधे आदमी के बेआवाज प्रश्न
मेरी आवाज बेउत्तर मौन
कहां थी मेरी आवाज?
कभी उठकर रोटियों के सुगन्धित धुऐं में
कभी उठकर प्यालों की खनखनाहट में
कभी उठकर साजों की झनकार में
कभी उठकर मुद्राओं की खनक में
कभी उठकर चोराहे के भोपुओं में
कभी उठकर मंत्रों इबाबतों में
कभी उठकर बारूद के धुंऐ में
घुटती हुई लरजती हुई
आधे आदमी की सूखी आंखों में
खोती हुई।
सरहद पार जिसे छोडा
वह भी था आधा आदमी
इस पार जो लौटा
वह भी था आधा आदमी
न आवाज न आंसू
नहीं चार छंदों का गान
रोक सके न क्यो
आदमी को आधा आदमी होते हुऐ
बना सके न क्यो
आदमी को एक पूरा आदमी?