तुम्हारे स्पर्श
पुरुष के पहले स्पर्श
नहीं है मेरे शरीर पर
फिर भी मैं तुम्हें उँगलियाँ
नहीं उठाने दूँगी
अपने स्त्रीत्व पर, सतीत्व पर।
धीरे-धीरे अपवाद हो गये हैं
अनछुए पुरुष, अनछुई स्त्रियाँ
किवदंतियों में ही शेष रह गये हैं
सतयुग के सत्यवान, सावित्रियाँ।
एक दिन औरत को अस्मत देकर
सलीब पर टांग दिया था आदमी ने
फिर अस्मतें लूटती रहीं सभ्यताएँ
साक्षी हैं सारी की सारी शताब्दियाँ।
आदमी के आदिम दुराचरण का
सबसे सनातन दर्पण है
औरत में पवित्रता की खोज
इसीलिये इतिहास के हर युग में
वह रचता रहा सतीत्व पर
ऋचाएँ, मंत्र, श्लोक।
जानवरों के साथ-साथ एक दिन
आदमी की जायदाद बन गई औरत
फिर जायदाद जैसी ही देखी गयी
परोसी गयी, भोगी गयी औरत!
आदमी का जंगल राज-
हर संस्कृति, सभ्यता,
व्यवस्था को नकारता रहा।
जिस दिन अस्मत ईजाद हुई थी
उस दिन आधी मर गयी थी
दुनिया की हर औरत!!!
मैं पूछती हूँ
स्पर्शों से स्त्रियाँ ही
क्यों अपवित्र होती हैं?
पुरुष अपवित्र क्यों नहीं होते?
अगर स्पर्शों के अंकेक्षक थोड़े भी
ईमानदार होते।
मेरे प्रश्नों के सहस्त्रों उत्तर होते।
एक और औरत एक और औरत,
भोग की उपलब्धियों का योग लगाते हैं लोग
विकृत मानसिकता होती है, मापदण्ड होते हैं
अन्यथा लोग भोग के आँकड़े आजीवन क्यों ढोते?
मैं आमूल अस्वीकार करती हूँ
यह जघन्य, पुरुषजन्य आचरण संहिता।
मैं पूर्णतः नकारती हूँ यह दोहरी संस्कृति,
दोहरे आचरण, थोपी हुई पवित्रता!
जिसे समाज ने बाँटी भी, दाँव पर भी लगाई
अपमानित भी कीं अनगिन द्रोपदियाँ
जहाँ हर ओर असुरक्षित हैं
दूसरों की बहू, बेटियाँ, पत्नियाँ
वहाँ किसके लिये हैं, यह
वर्जनाओं का अपाहिज व्याकरण?
यह वर्जनाओं की संहिता?