इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग़
जो खुशामद आदतन नहीं करता
कहीं से ले आओ निर्धनता
जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती
और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो
जल्दी कर डालो कि पहलने-फूलनेवाले हैं लोग
औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे -– रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा -– रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी -– रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय -– रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घण्टी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा -– रमेश
(1974)